ऋषिकेश में माँ की पूर्ण कृपा के लिये महा सुद पाँचम का दिन मिला था इसलिये चौथ के दिन हम बंबई से सरोडा आये । पाँचम के दिन माँ का बडी बेसब्री से इन्तजार किया मगर अन्य दिनों की तरह वो मिथ्या साबित हुआ । रात को करीब १ बजे माँ ने अंतःप्रेरणा देकर कहा 'आपका काम ना बने तो निराश मत होना ।' पीछले दस साल से एसा होता आया है । एसा होने पर मैं कुछ समय परेशान हो जाता हूँ । मगर निराश होकर बैठने से क्या होता है ? मेरी सोच पुख्ता है, इसलिये मैं एसे हालातों से निकल लेता हूँ ।
साधना का मार्ग आसान नहीं है, इसमें दृढ संकल्प, श्रद्धा और समर्पण की आवश्यकता होती है । जिस दिव्यशक्ति ने हमें जन्म दिया तथा जो कदम-कदम पर हमारा मार्गदर्शन करती है, उसकी प्रेरणा पर हमें पूरा विश्वास होना चाहिये । हमें भरोंसा होना चाहिये की उसकी छत्रछाया और निगरानी में हम सुरक्षित है । वो जो करेगी, हमारे भले के लिये करेगी । तभी हम लोगों की निंदा, टीका और विफलताओं से झूझ पायेंगे और मुसीबतों से अपना मार्ग निकाल पायेंगे ।
मुझे पक्का भरोंसा था की इस बार मेरा काम बन जायेगा मगर एसा हुआ नहीं । इसका मतलब साफ था, मुझे और इन्तजार करना था । मेरी धीरज, हिम्मत और सहनशक्ति की परीक्षा हो रही थी । सिद्धि की सुवर्ण घडी अब भी दूर थी । अगर मेरी साधना पूर्ण हो जाती तो मुझे कितनी खुशी मिलती ! मेरी बरसों की महेनत सफल हो जाती, मैं पूरी तरह से चिंतामुक्त हो जाता । मगर जैसी माँ की मरजी । मुझे हर हाल में मंगल का दर्शन करना था । मुझे यकीन था की एक दिन एसा जरूर आयेगा जब मेरा मनोरथ सिद्ध होगा । इसके लिये और कष्ट सहन करने की, अधिक इन्तजार करने की मेरी तैयारी थी ।
मैं फिर-से माँ को प्रार्थना करने लगा । इसके फलस्वरूप माँ ने ज्येष्ठ सुद पाँचम का दिन सूचित किया मगर ये भी अन्य दिनों की तरह निरर्थक सिद्ध हुआ । लंबे अरसे से चल रही मेरी साधना को अब मंझिल की तलाश थी । इसके लिये मुझे और धीरज और हिम्मत रखकर चलना था । मेरे लिये महत्वपूर्ण बात ये थी की दिन मिथ्या होने के कई अनुभव मिलने के बावजूद मेरा दिल नहीं तूटा था, वो नित्यनूतन आशा और उमंग से भरा रहा । विफलताओं से मेरी आत्मश्रद्धा कमजोर नहीं हुई, बल्कि और पुख्ता हुई । मेरी प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे एक महान शक्ति का दोरीसंचार है, यह बात हमेशा मेरे मन में रही । तभी तो मैं साधनापथ पर आगे चल पाया वरना सबकुछ छोडछाड कर निराश हो गया होता, बीच राह में बैठ गया होता । मुझे विश्वास था की एसा एक दिन जरूर आयेगा जब मैं साधना के सुवर्ण शिखर पर पहूँच जाउँगा । मेरी जगह कोई और होता तो शायद अपना उत्साह खो बैठता, निराश और नाहिंमत हो जाता । मगर इश्वर की जो महिमामयी शक्ति मेरा मार्ग प्रशस्त कर रही थी, उसने एसा होने नहीं दिया । जो उसकी शरण में जाता है, उसे किसी भी हालत में डरने की, निराश या नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं है । उसका भूत, भावि और वर्तमान – तीनों उस शक्ति के हाथ में सलामत है । वो किसी भी सुख-दुःख, निंदा-स्तुति, पतन और उत्थान में शांत बना रहेगा ।
जैसे सूरज की गर्मी से बेचैन हुई धरती बारिश का इन्तजार करती है, इसी तरह रोमरोम में परमात्मा की रागरागिणी लिये मैं उस सुनहरे दिन का इन्तजार करने लगा । मुझे यकीन था की वो दिन दूर नहीं है । 'डगलुं भर्युं के ना हठवुं, ना हठवुं' अर्थात् एक बार जो रास्ते पर चल पडा हूँ, उससे पीछे नहीं हटूँगा – ये मेरा जीवनमंत्र हो चुका था ।